चोलराजा को शाप विमोचन बताना
तिरुपति बालाजी मंदिर का संपूर्ण इतिहास –
चोलराजा को शाप देते हुए श्रीहरि
नारायण के ये बातों सुनकर चोलराजा ने दुःखी होकर कहा। “हे नारायण, पुरुषोत्तम, मै ने नहीं जाना था कि आप यहाँ खखोडर में है। यह बात पहले मालूम हुआ तो मैं ही खुद प्रतिदिन आप की सेवा करता। मुझे मालूम नहीं था कि आखिर यह परिणाम निकलेगा। मुझे क्षमा कीजिए मै बेकसूर हूँ। राजा ने इस तरह श्रीमन्नारायण से तरस तरस कर प्रार्थना की। श्रीहरि ने चोलराजा से कहा “चोलराजा, मुझ से दिए गए शाप अटल है। इसे वापस लेने का अधिकार मुझ को भी नहीं। इसलिए तुम शापग्रस्त होकर इस शरीर को छोड दो। आगे के जन्म में तुम फिर इसी चोल वंश में आकाशराजा के नाम से पैदा होकर तुम्हारी बेटी पद्मावती की शादी मेरे साथ कर दोगे। बाद में तुम एक अमूल्य वज्र – किरीट को मुझे अर्पित करोगे। उसे मैं हर शुक्रवार धारण करूँगा। उस समय तुम
मेरे दर्शन करके मोक्ष पाओगे।” इस प्रकार श्रीहरि ने चोलराजा को शाप विमोचन बताया।
बेहोश होकर गिरा हुआ पशुपालक ने होश में आकर श्रीहरि को देखा और श्रीहरि के चरण पकडकर रोते हुए कहा “हे प्रभो! मैं मूर्ख हूँ मुझे क्षमा कीजिए। अनजान से किए गए मेरे कसूर से मेरी रक्षा कीजिए। इस तरह पशुपालक ने तरसते 2 प्रार्थना की। श्रीहरि ने पशुपालक को देखा और कहा– “रे पशुपालक तुम निरपराधी हो इसमे तुम्हारा दोष नहीं है। इसलिए तुम्हारी
रक्षा की है। इस भूलोक में तुम्हीं ने पहली बार मेरे दर्शन कर लोगे इसी वजह से इस अवतार में मेरे मंदिर में भी तुम्हारे वंश (गोल्लवंश) वालों को ही पहली बार दर्शन मिलेगा। अब तुम निश्चिन्त रहो।” श्रीहरि को ये बातें सुनकर पशुपालक श्रीहरि से बिदा लेकर चला गया। श्रीहरि पशुपालक को दिए वरदान के अनुसार आज तक भी उसी वंशवाले श्रीहरि के प्रथम दर्शन कर रहे है। बाद में ही बाकी कार्यक्रम हो रहा है। श्रीहरि को कुल्हाडी से मारनेवाली पशुपालक वंशीयों को आज भी हम देख सकते है।
भूवराह मूर्ति का वृत्तान्त-
पूर्वकाल में सनक, सनन्दन नाम के महामुनि श्रीहरि के दर्शन केलिए कुब्ज धारण करके वैकुण्ठ गए। वहाँ जय, विजय नामक द्वारपाल सनक, सनन्दन मुनियों को प्रवेश से रोक दिया और उनको हटा दिया। सनक, सनन्दन मुनि इस अपमानको सह नहीं सके और उन द्वारपालक जय, विजय को यह शाप दिया कि तुम राक्षस बन जाओं। जय, विजयों ने अपनी भूल समझकर मुनियों से प्रार्थना की। सनक, सनन्दन जय, विजयों की प्रार्थना सुनकर उनकी क्षमा की और कहा – “हमारा शाप अटल है। मगर विशाप तो है। तुम दोनों तीन जन्म में राक्षस होकर श्रीहरि के साथ से मरने के बाद तुम फिर द्वारपालक होकर वैकुण्ठ में निवास करेंगे।” यो विशाप देकर सनक, सनन्दन मुनि वैकुण्ठ से लौट गए। जय, विजय भूलोक में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप नाम से राक्षस होकर पैदा हुए।
सनक, सनन्दन महामुनियों के शाप से भूलोक में हिरण्याक्ष व हिरण्यकश्यप नाम से राक्षस होकर पैदा हुए। इन दोनों में हिरण्याक्ष परम दुर्मार्ग था। वह हमेशा भूलोक में मुनियों और महर्षियों को सताता था। उनमें विष्णु भक्तों को और भी ज्यादा सताने लगा। एक बार हिरण्याक्ष इस भूमण्डल को चटई की तरह लपेट कर पाताल में छिपा गया। देवताओं ने हिरण्याक्ष से हैरान
होकर श्रीहरि के पास गए और उस राक्षस के बारे में अपनी बाधाएँ भी श्रीहरि से बताया। श्रीहरि ने देवताओं के कष्ट सुनकर उनको धीरज देकर भेज दिया। श्रीहरि ने भूदेवी को बचाने के लिए श्वेत वराह के रूप से अवतार लिया और अपने तेज दाँतों से हिरण्याक्ष का संहार करके पाताल में छिपाई हुई भूदेवी को बचाकर यथास्थान रख दिया। श्रीहरि वराह रूप म हिरण्याक्ष का संहार करने पर
देवता लोग, गन्धर्व और मुनिगण ने वराहस्वामी से प्रार्थना की कि “जिस भूमण्डल को आप ने बचाया, उसी भूमण्डल में रहकर भक्तों की रक्षा करें।” वराह ने मुनियों और देवताओं की बात मान ली और शेषाचल पर रहकर भक्तों की रक्षा करने लगे। भूलोक में ज्यादा लोक श्री वराहस्वामी के भक्त बन गए। उन भक्तों में श्रेष्ठ बकुलादेवी भी हो गयी। बकुलादेवी हमेशा भक्ति, श्रद्धा से वराह स्वामी की पूजा करती थी।
बकुलादेवी का पूर्व-जन्म वृत्तान्त-
द्वापरयुग में द्वारका वासियों को श्रीकृष्ण अपने कृष्णावतार की परिसमाप्ति की वार्ता सुनकर सब लोग शोकमग्न थे। यह खबर माता यशोदा देवी तक पहुँच गई। यशोदा देवी व्याकुल होकर श्रीकृष्ण के पास आकर कहा – “कुमार, मै ने तुम्हें इस अवतार में बाललीला और लाड प्यार को देखा बल्कि तुम्हारे कल्याण को नहीं देखा, मेरी इस प्रार्थना को पूरा करो।
श्रीकृष्ण ने माता यशोदा की बात सुनकर दुःखित माता यशोदा को समझाया और कहा “माता, मै आगे कलियुग में श्री वेङ्कटेश्वर नाम से अवतार लेता हूँ। उस अवतार में तुम्हारी सहायता से ही मेरी शादी होगी। तुम कलियुग मे बकुलादेवी के नाम से जन्म लेकर मेरे अंश श्री वराहस्वामी की पूजा करते रहोगी। मै वहाँ आकर तुम से मिल – जुलकर रहूँगा।” इस तरह माता यशोदा को वरदान दिया। श्रीकृष्ण के प्रिय वचन सुनकर यशोदा देवी बहुत खुश हुई और आनन्द से अपने उस शरीर को छोड दिया। फिर कलियुग में बकुलादेवी के नाम से जन्म लिया और शेषाचल में श्री वराह स्वामी की सेवा करते रह गई।
देवदेव श्रीहरि ग्वाले की कुल्हाडी से मार खाकर उस घाव की दवा के लिए घूमते – फिरते सोचते जंगलों में फिर रहा था। श्रीहरि की इस हालत को सुनकर देवगुरु बृहस्पति वेंकटाचलम आकर श्रीहरि से मिला। श्रीहरि बृहस्पति का आदर करके अपने माथे पर लगे घाव दिखाकर कहा – “इसके इलाज के लिए दवा खोज रहा हूँ। कोई दवा बताइए।”
बृहस्पति ने श्रीहरि को देखकर कहा “हे महाप्रभो! भक्तजनों की रक्षा के लिए आप को खुद कष्ट सहना पड़ा। आप के इस घाव को एक ही दवा है। वह यह है कि गुलर पेड का दूध निकाल कर उसमें मदार की रूई भिगोकर उस रूई को घाव पर मरहम पट्टी लगाना चाहिए। इस प्रकार एक हफता इलाज करने पर घाव ठीक होगा।”यों कहकर देवगुरु बृहस्पति श्रीहरि से बिदा लेकर तथा स्थान पहुँच गया।
श्रीहरि गुलर पेड को खोजते हुए जंगल में फिर रहा था। जंगल में खोजते भटकते समय श्रीहरि को एक कुटी दिखाई पडी। धीरे धीरे चलकर श्रीहरि उस कुटी के पास आया। उस पर्णशाला में श्रीकृष्ण भगवान का भजन हो रहा था। श्रीहरि उसे न सुन सका। क्योंकि वह अपने घाव के दर्द को सह न सका था। दर्द के मारे श्रीहरि “माँ माँ” कहकर पुकार कर वहीं कुटी के पास बैठ गया। श्रीहरि की आवाज सुनकर बकुलादेवी भजन से उठकर बाहर आई। श्रीहरि को देखकर उसको अंदर ले गई। श्रीहरि ने देवगुरु बृहस्पति से बताई गई दवा को बकुलादेवी को बताया। बकुलादेवी यह सुनकर उसी प्रकार श्रीहरि को दवा डालकर उसे फल, क्षीर खिला पिलाकर आराम से लिटा दिया। श्रीहरि आराम से उठने के बाद बकुला देवी न श्रीहरि से पूछा – “बेटा, तुम कौन हो? कहाँ से आए हो? यह घाव कैसे हुआ? यों पूछकर अपने मन की वेदना को प्रकट किया।” श्रीहरि ने व्याकुल बकुला माता को देखकर – “माँ मै कौन हूँ! मुझे नहीं पहचाना?” कहते कहते पिछले जन्म के श्रीकृष्णावतार को दिखाया। बकुलादेवी खुश होकर श्रीहरि को गले लगा लिया। श्रीहरि बकुला माता से अपने ऊपर बीती घटनाओं को कह सुनाया।
दूसरे दिन सुबह बकुलादेवी ने श्रीहरि को उठाकर स्नान कराया। खिला – पिला कर कहा – “कुमार, इस शेषाचल पर आदि वराहमूर्ति बसा हुआ है। एक बार उस स्वामी के दर्शन कर आएँ। यह कहकर श्रीहरि को वराहस्वामी के मन्दिर ले गई। श्रीहरि और बकुलादेवी दोनों ने भक्ति – श्रद्धा से स्वामी की पूजा की।