भृगुमहर्षि श्रीहरि की परीक्षा करके वक्षः स्थल पर लात मारना –
तिरुपति बालाजी मंदिर का संपूर्ण इतिहास
5 श्रीहरि के वक्षः स्थल पर लात मारना
कैलास से लौटकर भृगु महर्षि वैकुण्ठ में पहुँच गया। भीतर जाते हुए उसके अंदर यह भय लगा कि यहाँ भी पहले की तरह निराश होना पडे, यों सोचते – सोचते बैकुंठ में पहुंचा तीनों लोकों में वैकुण्ठ में पहुँचा। तीनों लोकों में वैकुण्ठ सब से ज्यादा सुन्दर और शोभायमान था। वहाँ लक्षमीदेवी तांडव करती थी। धनमूलमिदम् जगत् वचन से लक्ष्मी का निवास वैकुण्ठ ही था। इसलिए जहाँ भी देखो लक्ष्मी के प्रभाव से वैकुण्ठ तेजोमय विराजित था। ऐसे सुन्दर लोक में प्रवेश करके भृगु श्रीहरि की राह देख रहा था। श्रीहरि वैकुण्ठ में शेष शय्या पर लेटे हुए थे। लक्ष्मीदेवी श्रीहरि के पास बैठकर अपनी कोमल हाथों से श्रीहरि का पाँव दबा रही थी। भृगु का आगमन श्रीहरि को मालूम था। बल्कि अनजान की तरह आँख मूँदकर सोया हुआ जैसा नाटक कर रहा था। भृगु ने आकर श्रीहरि को देखा। श्रीहरि से भृगु का स्वागत न किया गया। इसलिए भृगु को क्रोध आ गया। क्रोध के मारे आवेश में आकर शेष शय्या पर लेटे हुए श्रीहरि के वक्षःस्थल पर अपने बाँए पाँव उठा कर लात मार दिया। अचानक इस घटना को देखकर लक्ष्मीदेवी निश्चेष्ट हो गई मार खाने के बाद श्रीहरि ने आँख उठाकर देखा और मुस्कुरा कर प्रणाम करके भृगु का स्वागत किया। श्रीहरि ने विनय से कहा, हे महर्षि मुझे क्षमा कीजिए आप जैसे महर्षि का आगमन न जानना मेरा अपराध है। आइस, बैटिए कहकर भृगु को शेष शय्या पर बिठाया। उसकी सेवा करते हुए कहा – आप जैसे महर्षि का मेरे वैकुण्ठ में आना मेरा अहोभाग्य है। कहिए, आप ने मुझे क्यों लात मारा ? आप के पाँव को चोट तो नहीं लगी? यों कहकर श्रीहरि भृगु की बाएँ पैर को दबाते दबाते पाँव के नीचे के ज्ञान नेत्र को फोड़कर उंगली से दबा दिया। जब ज्ञान नेत्र फोडा गया तब भृगु का अहंभाव और गर्व निकल गया। परिणाम यह हुआ कि भृगु की आँखे खुल गयीं। बाद श्रीहरि से की गयी सेवा को देखकर भृगु शेष शैया से उठ गया और दुःखित होकर दीनस्वर में श्रीहरि से प्रार्थना की हे भगवान वैकुण्ठ वासी मुझे क्षमा कीजिए मैं अपराधी हूँ, पापी हूँ मुझ से की गयी इस भूल का प्रायश्चित नहीं है। मेरे जैसे पापी को जरूर शिक्षा मिलनी चाहिए। यो कहकर भृगु श्रीहरि के चरणों पर गिर पड़ा चरणों का आलिंगन कर रो पड़ा। श्रीहरि ने भृगु के आने का कारण समझ लिया और मुस्कुराते हुए अपने पैरों पर गिरे हुए भृगु को उठाया और कहा “हे भृगु, तुम निरपराध और निमित्तमात्र हो। इसमें तुम्हारी भूल कोई नहीं है। तुम्हारी वजह से मेरी कीर्ति बढ जायेगी। मै ने तुजे क्षमा किया है। अब तुम निश्चिन्त रहो। तुम जो आशाएँ लेकर यहाँ आये हो वह अवश्य पूरे होगी। श्रीहरि के इन वचनों को सुनकर भृगु अत्यन्त आनन्दित हुआ। श्रीहरि को नमस्कार करके भूलोग लौटा।
भूलोक को लौटकर भृगु गंगा शनदी के किनारे आ पहुँचा और कश्यप आदि महामुनियों को अपनी त्रिलोक यात्रा का अनुभव बताया। भृगु के इस साहस कार्य को कश्यप आदि महर्षि सुनकर आनन्दित हुए। भृगु ने कहा – कश्यप महामुनी इस यज्ञ की फल-स्वीकृति का योग्य त्रिमूर्तियो में केवल श्रीहरि ही है। इसलिए श्री नारायण को ही यह फल मिलना चाहिए। भृगु के इस वचन को सुनकर महर्षि लोग श्रीहरि को ही यज्ञ – फल देने का निश्चय किया।
लक्ष्मीदेवी श्रीहरि से रूठकर भूलोक में पहुँचना –
भूलोक गंगानदी के किनारे कश्यप आदि महामुनियों ने यज्ञ को यथोचित प्रारंभ किया। वेदमन्त्रों से एक मंडल (अडतालीस दिन) में यज्ञ को पूरी किया । यज्ञ समाप्त होते ही श्रीहरि यज्ञ स्थल में प्रत्यक्ष हुआ। श्रीहरि को
देखते ही मुनियों को आनन्द हुआ और यथोचित रीति से श्रीहरि को यज्ञफल समर्पित किया। श्रीहरि मुनियों से दिये गये यज्ञ-फल स्वीकार करके अन्तर्धान हो गया और वैकुण्ठ पहुँच गया।
वैकुण्ठ में लक्ष्मीदेवी जब भृगु महर्षि से अवमानित हुई तब से लक्ष्मी श्रीहरि से नाराज होकर उसे रूठ गई। श्रीहरि लक्ष्मी को बहुत समझाया बल्कि लक्ष्मीदेवीने न सुनी। लक्ष्मी के बिना श्रीहरि बेचैन था। महाविष्णुने लक्ष्मी को समझाया। लक्ष्मी अपनी बात पर अटल थी। लक्ष्मी इस बात पर बहुत दुःखी हुई कि श्रीहरि के वक्षःस्थल लक्ष्मी का निवास है। ऐसे पवित्र वक्षःस्थल पर एक साधारण अयोग्य मुनिपुङ्गव ने अपने पैर से मारा। फिर भी श्रीहरि नाराज न होकर उसके बदले उनका ही आदर करके जिस पाँव से अपने वक्षःस्थल पर
लात मारा गया उसी – पाँव को दबाने लगा। इस अनुचित घटना लक्ष्मीदेवी को बहुत बुरी लगी। लक्ष्मी देवी ने सोचा था श्रीहरि उस घमण्डी मुनि को दण्ड देगा। मगर ऐसा नहीं हुआ । इन सब घटनाओं से लक्ष्मी विरक्त होकर श्रीहरि से दूर हो गई।
श्रीहरि लक्ष्मी की इस स्थिति को देखकर बेचैन हो गया और लक्ष्मी को समझाने की कोशिश करते हुए कहा – लक्ष्मी, भृगु निमित्तमात्र है। उसका कोई दोष नहीं है। भृगु से जो गुनाह हुआ वह आगे मानव कल्याण का बीज है भृगु हमारे पुत्र के समान है। पुत्र ने कोई कसूर किया तो कोई माँ- बाप उसको कठिन दंड नहीं दे सकते। वैसे ही मै ने अपने पुत्र के समान उसके कोई दंड नहीं दे सका। अब तुम शांत हो जाओं और इन सब को भूल जाओ। लक्ष्मी को इन बातों पर भरोसा नहीं हुआ। श्रीहरि का स्वभाव ही ऐसा है। सभी विषयों में अपना नाटक प्रकट करता है। वह तो नटना – सूत्रधार है। जहाँ जैसे बातें करता है। वैसे ही नाटक दिखाता है। ऐसा करते रहना उसकी आदत है। इसलिए लक्ष्मी देवी ने समझा कि श्रीहरि अपने बारे में उसी तरह नाटक रच रहा है।
इसलिए श्रीहरि की बात पर विश्वास नहीं किया। लक्ष्मी की जिद्द को देखकर श्रीहरि बेचैन हो गया और उसको मुँह कलाविहीन हो गया। श्रीहरि की इस स्थिति को देखकर लक्ष्मी ने श्रीहरि से पूछा-हे नाथ! चौदह भुवनों के अधिपति होकर और तैंतीस करोड देवताओं के प्रभु होकर भी एक मामूली मुनि से मार खाकर उसको शाप दिए बिना उसी का ही आदर करके उसका पाँव आप स्वयं दबाने लगे। क्या यह लज्जा की बात नहीं है? यह सब आप सह सकते है। मगर मै नहीं सह सकूँगी। इस अपमान से मेरा मन बहुत दुःखने लगा है। मैं ने कभी
नहीं सोचा था कि आप इतना असमर्थ है। यों कहकर लक्ष्मी वैकुण्ठ से निकल कर भूलोक को रवाना हो गई। श्रीहरि ने लक्ष्मी को मना किया। लेकिन लक्ष्मी एक न सुनी। लक्ष्मी वैकुण्ठ से जाते हुए कहा – हे प्रभु! जिस मुनि ने हम दोनों को अलग किया उसको दण्ड दिये बिना नहीं छोडूंगी जिस ब्राह्मण की वजह से हम दोनों अलग हो गये है उस ब्राह्मण – जाति भूलोक में परम दरिद्र हो जावे। अपनी विद्या बेचकर जीवन करें। यों शाप देकर लक्ष्मी भूलोक में कोल्हापुरम् नामक गांव में आकर तपस्या करने बैठ गई।