आकाश राजा की मोक्षप्राप्ति-
तिरुपति बालाजी मंदिर का संपूर्ण इतिहास –
कुछ दिनों के बाद एक दिन नारायणपुरम से एक दूत अगस्त्य महामुनि के आश्रम पहुँचकर श्रीनिवास पद्मावती को देखकर दुःखित स्वर में बताया – “हे स्वामी, मेरे महाराज आकाश राजा अचानक अस्वस्थ हो गए है। अब वे आप लोगों को तुरंत देखना चाहते हैं। आप जल्दी चले आइए।” दूत की बात सुनकर श्रीनिवास पद्मावती, बकुलादेवी और अगस्त्य मुनि को भी स्नाथ लेकर
जल्दी जल्दी नारायणपुरम को रवाना हो गए। सब लोग राजमहल पहुंच गए। इतने में आकाशराजा बेहोश हो गए थे। रानी धरणीदेवी पद्मावती को देखकर आलिङ्गन करके खूब रोई। श्रीनिवास आकाशराजा की स्थिति देखकर बहुत पछताया। आकाशराजा ने धीरे धीरे आँख खोलकर श्रीनिवास को देखा और दुःखित होकर कहा- “हे गोविंद, परंधाम, मेरे अंतिम घडियों में मैं तुम्हें देख चुका हूँ। अब मै धन्य हूँ। मुझे और किसी की चिंता नही। मगर श्रीनिवास! मेरी एक विनंती है- “मेरा बेटा वसुदान और मेरा भाई तोंडमान ये दोनों नादान है तुम्ही
को उनकी रक्षा करना। आकाशराजा ने पद्मावती को देखकर कहा– “बेटी, तुम लोकजननी हो, तुम्हें पाकर मै धन्य हुआ हूँ। आज से तुम्हारा और मेरा ऋण का अंत हो गया।” इस प्रकार कहकर आकाशराजा ने अपने पार्थिव शरीर को छोड दिया। इसे देखकर सब लोग दुःखित हो गए। श्रीनिवास ने आकाशराजा के दहन संस्कार का इंतजाम किया। रानी धरणीदेवी ने अपने पति के साथ
सहगमन किया। इस प्रकार सर्व कर्म क्रियाओं के होने के बाद श्रीनिवास फिर अगस्त्य मुनि के आश्रम पहुँचकर बाकी दिन वहीं रहने लगा।
राज्याधिकार के लिए वसुदान और तोंडमान दोनों में युद्ध-
अगस्त्य महामुनि के आश्रम में श्रीनिवास पद्मवाती, बकुलादेवी के साथ बाकी दिन खुशी से बिताने लगे। आकाशराजा के मरने के बाद वसुदान और तोंडमान दोनों अपने अपने राज्याधिकार के लिए आपस में लडने लगे। वसुदान कहता था– “पिता के मरने के बाद राज्याधिकार पुत्र को ही मिलना चाहिए। इसलिए इस राज्य का अधिकारी मै हूँ।” तोंडमान कहता था – ‘बडे
भाई के मरने के बाद राज्याधिकार छोटे भाई को मिलना चाहिए। इसलिए इस राज्य पर अधिकार मुझे मिलना चाहिए।’ इस प्रकार दोनों में वैर बढने लगा। दोनों अपनी अपनी सेना इकट्ठा करने लगे और युद्ध करने तैयार हो गए। वसुदान और तोंडमान दोनों श्रीनिवास से सहायता मांगने के लिए अगस्त्य महामुनि के आश्रम पहुँच गये। श्रीनिवास ने इन दोनों का स्वागत किया और इन दोनों का अभिप्राय जान लिया। श्रीनिवास वसुदान और तोंडमानों के बीच में युद्ध निवारण की कोशिश को। लेकिन वे टस से मस न हुए। अंत में युद्ध का निश्चय होने पर तोंडमान को अपना शंखचक्र को लेकर युद्ध को तैयारी मे लग गया और वसुदान श्रीनिवास के साथ युद्ध भूमि में पहुँच गया। दोनों के बीच में भयानक युद्ध होने लगा। दोनों के पक्ष में हजारों सिपाही मारे गये। श्रीनिवास अकेला रथ पर चढकर तोंडमान के पुत्र के साथ भयंकर युद्ध करने लगा। वह श्रीनिवास के सामने खडा न रह सका। आखिर तोंडमान श्रीहरि का ध्यान करके सुदर्शन को श्रीनिवास के ऊपर प्रयोग किया। वह सुदर्शन श्रीनिवास के हृदय को जा लगा।
सुदर्शन के प्रभाव से श्रीनिवास बेहोश हो गया। यह विचार सुनकर पद्मावती तुरंत रणभूमि में पहुँच कर अपने पति की सेवा करने लगी। थोडी देर के बाद
श्रीनिवास होश में आया । पद्मावती ने श्रीनिवास को देखकर कहा – “स्वामी ये दोनों मेरे है, एक तो भाई दूसरा चाचाजी। इन दोनो में किसी भी हानि हुई तो मै सह नहीं सकती। इसलिए आप इन दोनों को शांत होने दीजिए। राज्य को दोनों में आधा आधा बाँटकर युद्ध का अंत कीजिए। पद्मावती को यह बात सुनकर श्रीनिवास ने तोंडमान और वसुदान को समझाकर राज्य को आधा बाँट दिया। तोंडमान और वसुदान श्रीनिवास की बात मानकर युद्ध का अंत करके अपना अपना राज्य लेकर आपस में खुशी से राज्य का पालन करने लगे।
तोंडमान श्रीनिवास के लिए आलयनिर्माण करना-
श्रीनिवास अपनी छः महीने की अवधि बीत जाने पर अगस्त्य महामुनि से बिदाई लेकर पद्मावती और बकुलामाता को लेकर अगस्त्य आश्रम से निकल कर शेषाचल पहुँच गया। उसके बाद एक शुभ दिन पर अपने भक्त तोंडमान को बुलवाकर सससे कहा – “हे भक्त तोंडमान, तुम पूर्व जन्म में रंगदास नाम के मेरे भक्त हो। उस समय तुम बडे स्त्री लोली थे। इसलिए इस जन्म में राजा बनाये गया हो। मै इस कलियुगान्त तक इसी शेषाचल में निवास करना चाहता हूँ। वराह स्वामी जी ने मेरे रहने के लिए अपनी पुष्करिणी के बगल में जगह दी है। इसलिए तुम मेरे रहने के लिए यहाँ एक मन्दिर का निर्माण करो। श्रीनिवास का कहना सुनकर तोंडमान ने श्रीनिवास की आज्ञा लेकर उनके कहने के अनुसार सुन्दर मन्दिर निर्माण करने के लिए विश्वकर्मा को बुलवाया और आलय निर्माण का प्रबन्ध किया। भवन में कई कमरें, मंडप, रसोई घर, गजशाला, गो शाला, अश्व शाला, सोने का कुँआँ, प्राकार, गोपुर, शेषाचल पहुँचनेवाले यात्रियों की सुविधा के लिए पहाड के दोनों ओर मार्ग, मार्ग में गोपुर मंडप और सोपान मंडप इत्यादि बनाकर निर्माण कार्य पूरा होने के
बाद श्रीनिवास से तथा दिया। श्रीनिवास सुनदर मन्दिर इत्यादि देखकर खुश होकर भक्तों को समाचार भेज दिया। श्रीनिवास के आह्वान लेकर ब्रह्मदेव, शंकर आदि देवता भूलोक के शेषाचल में आ गए। एक शुभ मुहूर्त पर मुनियों वेद मन्त्र पठन करते हुए शुभ घडियों में श्रीनिवास ने पद्मावती के साथ मन्दिर में प्रवेश किया और आए हुए अतिथियों को भोजनताँबूल दक्षिणा, आभरण, इत्यादि वस्तु देकर सत्कार किया। श्रीनिवास के यहाँ आदर सत्कार पाकर सब लोग अपने स्थान पर पहुंच गए।
श्री श्रीनिवास का ब्रह्मोत्सव-
तोंडमान से निर्माण किए गए मन्दिर में श्रीनिवास का प्रवेश होने के बाद ब्रह्मदेव ने खुद दो दिव्य ज्योतियों को जलाकर कहा – “कलियुगांत तक ये ज्योतियाँ सदा प्रकाशित होते रहेंगी” कहकर प्रणाम किया। इसके बाद
ब्रह्मदेव श्रीनिवास के दर्शन करके कहा— “हे परमात्मा, मुझे खुद तुम्हारी पूजा करने की इच्छा है। मेरी इस तमन्ना को पूरा करने का अवकाश दीजिए।” ब्रह्मदेव की बात सुनकर श्रिनिवास ने कहा— “हे ब्रह्मदेव तुम्हारे अभीष्ट को मै कभी इनकार नहीं किया। लोक कल्याण के लिए आप जो करेंगे, वह सदा मुझे मंजुर है।” ब्रह्मदेव ने श्रीनिवास से विनंति की कि “इस कलियुग में जो आप कि सेवा, पूजा करते है, उनको धन – धान्य, संपद, आयु, आरोग्य पाने का आशीर्वाद दीजिए। इससे मानव अपने पापकर्मों से मुक्ति पायें।” ब्रह्मदेव
की बात मान ली । ब्रह्मदेव ने तोंडमान ओ बुलवाकर आज्ञा दी कि ब्रह्मोत्सव के अवसर पर उपयोग होनेवाले वाहन इत्यादि बनवा दीजिए। तोंडमान ने ब्रह्मदेव को बात सुनकर विश्वकर्मा को बुलाकर ध्वजारोपण, मोतियों से भरे मंदिल, सर्व-भूपाल वाहन, हंसवाहन, शेषवाहन, गजवाहन, गरुडवाहन, सूर्यप्रभावाहन, चंद्रप्रभावाहन, हनुमन्तवाहन, अश्ववाहन और रथ इत्यादि वाहनों को विश्वकर्मा से बनवाकर ब्रह्मदेव के हाथ में सौंप दिया। ब्रह्मदेव ने इन वाहनों पर श्रीनिवास को बिठाकर तिरुमला के चारों गलियों में पिराकर उत्सव किया। ब्रह्मदेव से किए गए उत्सव को ही “ब्रह्मोत्सव” कहते है। इस उत्सव में कर्नाट, कांभोज, केरल, आंध्र, द्राविड, वंग, अंग, कलिंग, महाराष्ट्र के राजा और प्राजएँ हर साल उसी आश्विन महीने में आकर उत्सव में शामिल होकर अपने जन्म को पावन कर रहे है।
नारद की वजह से लक्ष्मी और पद्मावती के वाद-विवाद
देखकर श्रीनिवास शिलारूप धारण करना-
कोल्हापुरम में लक्ष्मीदेवी अपने पति श्रीहरि का नाम जपती थी। एक दिन नारद नारायण का गान गाते हुए लक्ष्मीदेवी के पास गये। लक्ष्मीदेवी नारद का आगमन देखकर उनको प्रणाम करके पूछा “हे नारद, कुशल से हो? मेरे पतिदेव के बारे में कोई पता मिला? कहीं कोई नई उलझन मे फैसा तो नहीं”? लक्ष्मीदेवी की ये बातें सुनकर नारद अचरज प्रकट करते हुए कहा– “हे देवी, आप को मालूम नहीं क्या” श्रीहरि पद्मावती के साथ दूसरी शादी करके श्रीनिवास नामसे शेषाचल में निवास कर रहे है। बडी अफसोस की बात है कि आपके रहते हुए आपकी मत के बिना और आप से पूछे बिना श्रीहरि ने शादी कर ली। यह तो ठीक नहीं। नारद की बात सुनकर लक्ष्मीदेवी आवेश में आकर तुरंत शेषाद्रि को रवाना हो गई। शेषाद्रि में श्रीनिवास पद्मावती के साथ
आसपास के पहाड विशेष, जलप्रपात, सुन्दर वन और प्रकृति सौंदर्य को देखते हुए आनन्द से घूमते – फिरते अपने महल में गए। लक्ष्मीदेवी शेषाचल पहुँचकर
श्रीनिवास और पद्मावती की प्रणय लीलाएँ देखकर क्रुद्ध होकर महल में पहुंची।
श्रीनिवास लक्ष्मीदेवी को देखकर अचेत हो गये। लक्ष्मी का आगमन देखकर पद्यावती लक्ष्मी के पास आई और पूछा—– “तुम कौन हो? इस प्रकार पति पत्नी रहते हुए
मन्दिर में आना अच्छा नहीं। यहाँ से चली जाओ। इस प्रकार कहती हुई पद्मावती को देखकर लक्ष्मीदेवी ने और भी क्रुद्ध होकर कहा — “तुम कौन हो?” मेरे पति के साथ रहती हुई उल्टे मुझे ही डाँट रही हो? मैं हूँ उनकी असली पत्नी। उन्होंने मुझे अग्निसाक्षी में विवाह किया बीच में आकर मुझ को ही डाँट रही हो? कि तुम कौन हो?” इस प्रकार दोनों आपस में दूषण भाषण कहने लगी। श्रीनिवास इन दोनों में किसी को भी कुछ नहीं कहाँ । ये दोनों आपस में लडती हुई देखकर श्रीनिवास अपने खडे हुए जगह से सात कदम पीछे हटकर भयंकर ध्वनि प्रकट करते हुए वहीं शिला रूप धारण किया । लक्ष्मी और पद्मावती दोनों ने भयंकर ध्वनि को सुनकर पीछे मुड़कर देखा तो श्रीनिवास का शिलारूप दीख पडा। लक्ष्मी पद्मावती दोनों श्रीनिवास का शिलारूप के
दोनों तरफ खडे होकर शोकमग्न हो गई।
लक्ष्मी और पद्मावती दोनों को श्रीनिवास का आदेश-
शिलारूप में श्रीनिवास ने पद्मावती -लक्ष्मदेवी को देखकर कहा “हे लक्ष्मी, यह पद्मावती तुम्हारे अंश से ही पैदा हुई है। मेरे त्रेतायुग के रामावतार काल में रावण के घर में माया सीता बनकर अनेक कष्टों को सहकर इसने
तुम्हारी रक्षा की है। वही वेदवती पद्मावती के नाम ले पैदा हुई है।” रावण संहार के बाद सीता को अग्नि प्रवेश करवाया। उस समय अग्निदेव दोनों सीताओं को लेकर बाहर आया और वेदवती को दिखाकर अग्निदेव ने मुझसे प्रार्थना की – “हे रामचन्द्र, इस वेदवती को भी अपनी पत्नी बनाइए।” अग्निदेव की बात सुनकर तुम ने भी वेदवती को पत्नी बनाने के लिए आग्रह किया। मै त्रेतायुग के रामावतार में एकप्तनी व्रत में था। इसलिए वेदवती से शादी नही कर सका। वेदवती को यह वरदान किया कि कलियुग में मै तुम से अवस्य शादी करूँगा।’
मैं ने अपने वरदान को पूरा किया। तुम इस विचार को न जान कर परमभक्त पद्मावती से आपस में लडने लगी। इसमें किसी का दोष नहीं। श्रीनिवास की ये बातें सुनकर लक्ष्मीदेवी अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर सारा हाल जानकर पछताने लगी फिर अपने पति से क्षमा माँगी और पद्मावती का आलिंगन करके कहा– “बहन, मै ने अनजान में तुम से झगडा किया। यह मेरी भूल है, इसको भूल जाओ।” यह कहकर फिर आलिंगन किया।
लक्ष्मी-पद्मावती दोनों को श्रीनिवास के वक्षःस्थल में प्रवेश करना
“हे लक्ष्मी, तुम मुझसे रूठकर जाने के बाद मै धनहीन हो गया हूँ। मेरे विवाह के लिए कुबेर से कर्ज ले चुका हूँ। इसके लिए हर साल व्याज देना है। वादाकर पत्र भी लिख दिया है। मुझे यही चिंता है कि व्याज कैसे चुकाऊँ।’ इसलिए तुम मेरे भक्तों को धन दो। मै उनके सपनों में जाकर कहूँगा– ‘तुम्हारे पापकर्मों से मोक्ष पाने के लिए मेरे यहाँ आकर केश-खण्डन, वस्तुदान, धनदान
कई तरह के पुरस्कार इत्यादि देकर मेरे दर्शन करो। यह मेरा आदेश है।’ तुम उन्हें संपत्ति दो। मेरे भक्त तुम से दिए गए संपदाओं मे थोडा भाग मुझे भक्ति से अर्पित करेंगे। मै उससे कुबेर का व्याज चुकाऊँगा। कलियुग के अंत में पूरा धन चुकाकर हम अपने वैकुण्ठ को चले जाएंगे। भृगुमहर्षि से मार खाकर अपवित्र हुआ वक्षःस्थल अब पवित्र हो गया है। तुरंत तुम उस स्थान को फिर पूरा कर दो।” श्रीनिवास की बात – सुनकर लक्ष्मी देवी खुश होकर श्रीनिवास के वक्षःस्थल में पहूँच गई। पद्मावती भी श्रीनिवास के आदेशानुसार उनके दूसरे वक्षःस्थल में पहुँच गई। श्रीनिवास लक्ष्मीदेवी को देखकर कहा “हे लक्ष्मी, तुम अपने निजस्वरूप को मेरे बाएँ वक्षःस्थल में रखकर तुम्हारे अंश से पद्मसरोवर में प्रवेश करके सदा भक्तों को रक्षा करो। मै प्रतिदिन आधी रात के बाद तुम्हारे यहां पहुँचकर फिर सुप्रभात के समय आनंद निलय पहुँचूँगा। अपने पति के आदेशानुसार लक्ष्मीदेवी खुशी से अलिबेलु – मंगापुरम में विश्वामित्र से निर्माण
किए गए पद्य – सरोवर में पैदा होकर मन्दिर में प्रवेश किया और वहीं शिलारूप धारण किया।
श्रीनिवास के गले मे बकुलामाता तुलसी माला बनकर रहना-
वन विहार के लिए गए हुए श्रीनिवास पद्मावती ज्यादा देर तक वापस नहीं आए। बकुलादेवी घबराहट से अपने बड़े बेटे गोविंदराज स्वामी के साथ आनंद निलय पहूँची। वहाँ पहुँचकर देखा तो श्रीनिवास शिला रूप में दीख पडा। बकुलादेवी इसे देखकर बहुत दुःखी हुई। श्रीनिवास दुःखी हुई बकुला माता को देखकर शिला रूप में कहा– “माता अब तुम्हारी मुक्ति आसन्न हुई। मै तुम्हें मोक्ष देता हूँ। तुम तुलसी दल की माला बनकर मेरे गले मे आसीन हो जाओ।” श्रीनिवास के कहने पर बकुलामाता आनन्दित हुई और तुलसीमाला बनकर श्रीनिवास के गले में आसीन हो गई। इसलिए श्रीनिवास को तुलसीदल पर ज्यादा प्रीति और अभी तक भी स्वामी को तुलसीदल से पूजा कर रहे है।
गोविन्दराजस्वामी तिरुपति में निवास करना-
गोवन्दराज स्वामी ने शिलारूप हुए भाई को देखकर कहा
“श्रीनिवास के धन भण्डार से धन निकालते निकालते थक गया। कितने ही धन निकालने पर भी वह घटता नहीं।” गोविन्दराजस्वामी की बात सुनकर श्रीनिवास
ने कहा– ‘भाई, तुम्हारे हाथ में धन की रेखाएँ है। इसलिए तुम्हारे हाथों में धन घटता नहीं। अब तुम थक गए हो। पहाड के नीचे तिरुपति में जाकर वहीं विश्रांति ले लो।’ श्रीनिवास के कहना मानकर गोविन्दराजस्वामी पहाड के नीचे तिरुपति पहुँचकर वहीं शिलारूप धारण किया। गोविन्दराजस्वामी से बसा हुआ नगर पहले ‘गोविन्दाराज स्वामी नगर’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। कालक्रम से वही तिरुपति नाम से मशहूर हो गया है।