श्रीनिवास का शिकार खेलने जाना-
तिरुपति बालाजी मंदिर का संपूर्ण इतिहास –
वेंकटाचल में श्रीनिवास माता बकुला देवी से की गई सपर्याओं को पाकर दिन बिताने लगा। एक दिन श्रीनिवास के मन में शिकार खेलने की इच्छा पैदा हुई। श्रीनिवास न बकुला देवी के पास आकर अपने मन की इच्छा प्रकट की। बकुला देवी श्रीनिवास की यह बात सुनकर निराश हुई और कहा – “कुमार, तुम बडे सुकुमार हो। तुम्हें ऐसे कार्य करने की आवश्यकता क्या है? वन में क्रूर,भयंकर जानवर चलते – फिरते है। उन जानवरों से मुझे डर लगता है। इसलिए तुम इस इच्छा को छोड दो।” श्रीनिवास ने बकुला देवी की यह बात सुनकर कहा – “माता, तुम मेरे ऊपर के प्रेम से ऐसा कह रही हो। लेकिन तुम्हें मालूम है कि ये जंगली जानवर मुझे कुछ भी नहीं कर सकते । मेरे ऊपर के प्रेम से यों कह रही हो। माता, मेरी इस तमन्ना को पूरा कर दो और मुझे आशीर्वाद दो।” बकुला देवी ने श्रीनिवास की बात मानकर उसे शिकार खेलने की अनुज्ञा दी। श्रीनिवास ने शिकार का वस्त्र पहनकर हाथ में धनुष – बाण लिया। बकुला देवी का आशीर्वाद पाकर शिकार करने वेंकटाचल पर एक महारण्य में प्रवेश किया। अरण्य में घूमते घूमते श्रीनिवास अपने धनुष में बाण साध कर अंतरिक्ष में प्रयोग किया। उस तीर के प्रभाव से आकाश में बिजलियाँ गरजने लगी और धनुष्टङ्कार की आवाज से सारा जंगलं गूंज उठा। इस गंभीर आवाज से जंगल के बाघ, सिंह, हिरन, भालू इत्यादि जानवर भय कंपित होकर इधर उधर भागने लगे। जानवरों का भागना देखकर श्रीनिवास अपने धनुष से तेज बाणों को छोडकर
क्रूर मृगों का संहार करने लगा। सारे जंगल में हा हाकार मच गया। अनेकों जानवर अपने प्राण खो गए।
श्रीनिवास ने जंगल में अनेक भयंकर मृगों का संहार किया। श्रीनिवास के सामने आये कोई जानवर न बच सके। श्रीनिवास सारा जंगल छान डाला। इतन में एक हाथी दूर में चिंघाडा। श्रीनिवास ने उस हाथी का चिंघाड सुना और उस आवाज की तरफ हाथी को खोजते चला। हाथी श्रीनिवास को देखकर दौड पडा। श्रीनिवास ने हाथी का पीछा किया। मगर हाथी दौडा जा रहा था। श्रीनिवास को उसका पीछा करना मुश्किल हो गया। श्रीनिवास ने ब्रह्मदेव का ध्यान किया। ब्रह्मदेव श्रीनिवास की इच्छा समझकर अपनी महिमा से एक श्वेत घोडे की सृष्टि की। उस घोडे पर सवार होकर श्रीनिवास ने हाथी का पीछा किया। आखिर हाथी ने हार मानकर सिर झुकाकर प्रणाम किया। श्रीनिवास ने दया से हाथी को
छोड दिया। हाथी ने अपनी राह ली। श्रीनवास जंगल में शिकार खेलते खेलते हैरान हो गया और प्यास बुझाने के लिए नजदीक के एक उद्यान में प्रवेश किया।
पद्मावती वनविहार में श्रीनिवास को पत्थरों से मारना-
श्रीनिवास श्वेत अश्व को साथ लेकर उद्यान में प्रवेश कर अश्व को पानी पिलाकर वह खुद पीकर, आराम करने के लिए वन में एक बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर आराम करने लगा। पद्मावती रोज की तरह अपनी सहेलियों को लेकर विहार के लिए वन में आ पहुँची। पद्मावती खेलते, गाते, फिरते श्रीनिवास के यहाँ बोधि वृक्ष के समीप आ गई। श्रीनिवास ने अपनी सहेलियों के साथ खेलती हुई पद्मावती को देखा। पद्मावती के रूप लावण्य को देखकर श्रीनिवास क्षणभर चकित हुआ और सोचने लगा कि यह रूपवती कौन है? कहीं देवलोक से तो नहीं आई? देवलोक के अप्सराओं में भी इतनी खूबसूरत नहीं होती। इस कन्या को किसी तरह शादी करनी चाहिए। इसी सोच में पड़ गया श्रीनिवास। पद्मावती खेलती गाती श्रीनिवास के नजदीक आ गई और श्रीनिवास को देखा। पद्मावती ने श्रीनिवास को देखकर अपनी सहेलियों से कहा – “यह परपुरुष कौन है? यहाँ क्यों आया है?” इसे जानने के लिए अपनी सहेलियों को श्रीनिवास के पास भेजा।
श्रीनिवास पद्मावती की बात सुनकर सहेलियों से कहा “हे कन्यामणियों, में शेषाचल निवासी हूँ। मेरा नाम श्रीनिवास है। मै इस जंगल मे शिकार खेलते हुए आराम के लिए यहां आया हूँ। अपने बारे में यों कहकर पद्मावती से पूछा – “हे युवती, तुम कौन हो? तुम्हारे माता – पिता कौन है? तुम्हारा शुभ नाम क्या है? श्रीनिवास के पूछने पर पद्मावती ने जवाब दिया – आर्य, मेरे पिताजी का नाम आकाश राजा है और मेरी माताजी का नाम धरणी देवी है। आप जैसे परपुरुष का इस वनमें आना मना है। इसलिए आप तुरंत यहाँ से चले जाइए।” पद्मावती की ये बाते सुनकर श्रीनिवास ने पद्मावती से कहा – “हे सुंकुमारी तुम्हारी इस रूप से मै चकित हूँ। मै तुम्हें प्यार करता हूँ। तुम्हारे बिना न जी सकता। तुम्हें छोडकर जाने को जी नहीं चाहता। तुम मुझसे शादी करना चाहती हो?” श्रीनिवास के यों पूछने पर पद्मावती ने क्रुद्ध होकर कहा
“मूर्ख, तुम जंगलों में शिकार खेलते हुए फिर रहे हो। शिकारी से मै शादी करूँ? यह बात अगर मेरे पिताजी को मालूम होगी तो तुझ जान से न छोड़ेगा।”
पद्मावती के यों कहने पर श्रीनिवास हसकर कहा-
“कुमारी तुम ने जो कहा वह ठीक है। मगर प्रेमियों के बीच मे ऊँच नीच का फरक नहीं रहता। तुम मेरे प्यार को स्वीकार करो। तुम मुझसे शादी करो। यह बात सत्य है मैं तुम से शादी करूँगा।” श्रीनिवास की बात सुनकर पद्मावती ने अपनी सहेलियों को इशारा किया। पद्मावती का इशारा जानकर सहेलियाँ पत्थर लेकर श्रीनिवास को
मारने लगी। पत्थरों की मार से श्रीनिवास का श्वेत अश्व वहीं गिरकर मर गया। श्रीनिवास भी घायल होकर पद्मावती को एक नजर से देखते हुए वहाँ से निकल पडा।
बकुलमाता से श्रीनिवास अपने मन की बात प्रकट करना-
श्रीनिवास शिकार से घायल होकर अपने कुटीर को पहूँचा। बकुला देवी श्रीनिवास के आगमन को देखा। उसके शरीर से बहता हुआ खून को देखकर डर गई और पूछा – “कुमार, यह सब क्या है? यह घाव कैसे लगा? मै पहले ही मना किया। शिकार करने मत जाओ। लेकिन तुम ने नहीं माना? अब देखो यह दुर्दशा।” यह कहकर बकुलादेवी चिंतित हुई। श्रीनिवास वेदना से भरी बकुला माता को देखकर कहा – “माता, यह घाव शिकार की वजह से नहीं हुआ। मै ने शिकार करते एक भयंकर हाथी का पीछा किया। आखिर वह हाथी मेरे शरण में आया। मै उसके पीछे बहुत दूर तक गया था। प्यास बुझाने के लिए नजदीक के उद्यान मे गया। वहाँ प्यास बुझाकर आराम करने बैठ गया था।
इतने में आकाशराजा की पुत्री पद्मावती अपनी सहेलियों के साथ खेलने आई। मै उस सुन्दर पद्मावती को देखकर चकित हो गया और उससे शादी करना चाहा। इससे पद्मावती ने क्रुद्ध होकर अपनी सहेलियों के साथ मुझे पत्थर से मार दिया। इसलिए मै घायल हुआ। बकुलादेवी ने श्रीनिवास की बात सुनकर घबराकर कहा – “बेटा, कहाँ राजकुमारी! कहाँ तुम! यह कैसे हो सकता है? तुम तो गरीब हो! वह तो सम्पन्न राजकुमारी! तुम दोनों के बीच में जमीन आसमान का फरक है। मेरी बात सुनकर तुम इस कामना को भूल जाओ।” अगर आकाशराजा को यह बात मालूम हो गई तो राजा हमें जिंदा नही छोडेगा। बकुला देवी की वेदना जानकर श्रीनिवास ने कहा— “माँ, मै त्रेतायुग में श्रीरामचंद्र के अवतार मे अपने पिता के आज्ञानुसार चौदह बरस अरण्यावास करने सीता देवी और भाई लक्ष्मण के साथ निकला। रावण माया से सीता का अपहरण के लिए आया। इसे अग्निदेव ने पहले ही जानकर सीता के स्थान में वेदवती को माया से सीता बनाकर रख दिया और निज सीता की रक्षा करके अपने साथ ले गया। रावण संहार के बाद सीता को अग्निप्रवेश करना पड़ा और अग्निदेव दोनों को अपने साथ ले आया और कहा – “हे रामचंद्र! रावण की माया को मै पहले ही जानकर इस वेदवती को माया सीता बनाकर निज सीता के स्थान में रख दिया। इतना कहकर अग्निदेव ने श्रीरामचन्द्र जी से विनंती की कि “हे रामचन्द्र, इस वेदवती से भी शादी करके इसे भी अपनी पत्नी बनाइए।” सीतादेवी भी अग्निदेव की बात की पुष्टि की।
अग्निदेव की विनंती और सीता की सूचना को सुनकर श्रीरामचन्द्र ने अग्निदेव से कहा – “अग्निदेव, मै इस त्रेतायुग के इस अवतार में एकपत्नी व्रतस्थ हूँ। दूसरी पत्नी को स्वीकार नहीं कर सकता। वेदवती की इस इच्छा को अगले कलियुग के अवतार में पूरा करूँगा। कलियुग में वेदवती आकाशराजा के यहाँ पद्मावती नाम से जन्म लेगी। मैं वेंकटेश्वर नाम से अवतार लेकर पद्मावती के साथ शादी करूंग।” इस प्रकार वरदान देकर मै ने वेदवती की इच्छा को पूराकिया। वही वेदवती आज आकाशराजा की पुत्री यह पद्मावती है।” इस प्रकार श्रीनिवास ने त्रेतायुग में वेदवती को दिया वरदान को आज निभाने का निश्चय किया।
पद्मावती की विरह वेदना-
पद्मावती अपनी सहेलियों से श्रीनिवास को मारा देने के बाद श्रीनिवास की स्थिति को देखकर मन में पछताने लगी। पद्मावती अपनी सहेलियों के साथ उद्यान से राजमहल लौट गई। इस घटना के बारे में हमेशा चिंतित रहती थी। जब से परपुरुष श्रीनिवास को शिकारी के रूप में देखा तब से पद्मावती को श्रीनिवास से प्रेम हो गया। राजमहल में जाने के बाद वह पहले जैसा उत्साहित नहीं थी। सदा श्रीनिवास को ही याद करती रहती। श्रीनिवास की याद में व्याकुल होकर खाना पीना छोड दिया और अपने मन की बात को किसी से कह न सकी। उसके मन में यह भय लगा था कि अपने मन की बात को माँ-बाप से कहने पर भी वे श्रीनिवास के साथ अपनी शादी नहीं कर सकते। यह सोचकर वह अपने मन की बात को अपनी सहेलियों से माँ बाप से किसी से कह न सकी। इसी चिंता से दिनों दिन बलहीन हो रही थी। खाना पीना छोड दिया। सहेलियों के साथ घूमना फिरना छोड दिया। हमेशा सोचने के कारण नींद भी न आति थी। इस प्रकार की वेदना से पद्मावती बीमार हो गई। पद्मावती की यह हालत जानकर आकाशराजा राजवैद्यों को बुलवाकर चिकित्सा करवाया और भूत – वैद्यों से तावीज बँधवाया। पद्मावती के नाम पर मन्दिरों में पूजा – पाठ होने लगा। फिर भी उसकी तबीयत न सुधरी बदले में बिंगडती ही गयी। तब भी पद्मावती ने अपने मन की बात माता पिता से और किसी से ना बताई।
श्रीनिवास बकुलादेवी से पद्मावती का पूर्व वृत्तांत पूरा बताने के बाद बकुलादेवी बहुत खुश हुई। यहाँ श्रीनिवास की हालत भी पद्मावती की जैसी हो गई और वह भी सदा पद्मावती की याद में रहा। श्रीनिवास की यह हालत
देखकर बकुलादेवी ने उसको धीरज देते हुए कहा-“बेटा, तुम चिंता मत करो। मै आकाशराजा के पास जाकर उसको किसी तरह समझाकर पद्मावती से
तुम्हारी शादी कराऊँगी।” यह कहकर बकुलादेवी आकाशराजा से मिलने नारायणपुरम को रवाना हो गई। श्रीनिवास माता बकुलादेवी की बात सुनकर आनन्दित हुआ। फिर भी उसकी चिंता कम नहीं हुई और यह शंका भी पैदा हुई। माता बकुला देवी की बात मानकर आकाशराजा पद्मावती को मुझे देंगे क्या? मैं ने गलती की। पद्मावती को उसी दिन मैं अपना असली रूप दिखाना चाहिए था। तब वह पहचान कर मुझसे शादी करने मान जाती। मेरे उस शिकारी रूप में मुझे पहचान न सकीं। यो मन में सोचते सोचते श्रीनिवास बेचैन हो गया।
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