श्रीहरि वराह स्वामी से स्थल माँगना-
तिरुपति बालाजी मंदिर का संपूर्ण इतिहास –
श्रीहरि वराह स्वामी से स्थल याचना करना
वराह स्वामी ने श्रीहरि और बकुला देवी को आशीर्वाद दिया। वराह स्वामी ने श्रीहरि के स्थिति को अपनी दिव्य दृष्टि से जान लिया। श्रीहरि ने वराह स्वामी से विनती की कि “हे स्वामी, यह पूरा शेषाचल आप के अधीन में है।
आप इसके अधिपति है। इसलिए आप मुझे यहाँ निवास के लिए कुछ जमीन दीजिए।” “श्रीहरि की ये बातें सुनकर वराहस्वामी ने श्रीहरि से कहा – “स्थल का मूल्य धन चुकाकर जितना चाहिए उतना लीजिए।” वराहस्वामी की ये बातें सुनकर श्रीहरि ने कहा – “हे स्वामी, अब मै संपत्तिहीन हूँ। जब से लक्ष्मी मुझसे रूठ गई, तब से मै गरीब हो गया हूँ। अब मेरे पास कुछ भी नहीं है। मै निर्धन हूँ। जमीन का मूल्य चुका नहीं सकता। इसलिए आप मुझे रहने के लिए जमीन दीजिए। इसका परिहार इस युग में जो मेरे मन्दिर में दर्शन करने आएँगे, वे सब पहले तम्हारे दर्शन करेंगे।” पहले तुम्हें पूजा, नैवेद्य, दक्षिणा इत्यादि अर्पित करेंगे। बाद में मेरे दर्शन करने आयेंगे, मेरे भक्तों की सेवा के सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं। जो आप की सेवा नहीं करेंगे, उनको तिरुमला यात्रा का फल नहीं मिलेगा।” श्रीहरि का यह राजी – सूत्र वराह स्वामी को अच्छा लगा। श्रीहरि को एक सौ फुट जमीन दी। इसके बाद बकुलादेवी और श्रीहरि वराहस्वामी से बिदा लेकर अपने कुटीर में आ गए। अब तक बकुला देवी श्रीहरि को किसी नाम से नहीं पुकारा था। इसलिए श्रीहरि से कहा – “कुमार, इस युग में तुम्हें किस नाम से पुकारूँ।” बकुला देवी की इस इच्छा को जानकर श्रीहरि ने कहा “माता, इस बेटे को जिस नाम से पुकारोगी उसे मैं मानता हूँ।” बेटे के ये प्रिय वचन सुनकर बकुला बहुत खुश हुई। श्रीहरि को यह नाम रखा “श्रीविनवास”। तब से अब तक वही नाम करोडों भक्तों के मन में बसा हुआ है। वही श्रीनिवास’ नाम आचन्द्रार्क चिरस्थायी हो गया। श्रीहरि वराहस्वामी को दिए हुए वचन के अनुसार आज तक भक्तों ने श्रीनिवास मन्दिर के बगल में पुष्करिणी के पास मन्दिर मे बसा हुआ श्री वराहस्वामी को ही पहले दर्शन करते है। बाद में ही श्रीनिवास के दर्शन करते है। यह संप्रदाय सिद्ध बात है।
आकाशराजा का वृत्तांत-
नारायणपुरम तिरुपति से बीस मील दूर पर है। वहाँ सुधर्म नामक राजा राज करता था। उसके राजा में प्रजा सुखी थी। सुधर्म राजा प्रजा को अपने बच्चों की तरह पालन करता था।
श्रीमहाविष्णु से शाप पाकर चोलराजा पिशाच बनकर घूमते-फिरते आयु के पूरे होने पर पिशाच शरीर को छोड दिया। बाद मे नारायणपुरम के राजा सुधर्म की धर्मपत्नी के गर्भ में प्रवेश कर वहीं जन्म लिया। राजा सुधर्म अपने बेटे को यह नाम रखा कि ‘आकाशराजा’। उसको बडे लाड -प्यार से पालने लगा। राजा सुधर्म एक बार शिकार खेलने गया। शिकार से लौटते समय थोडी देर विश्राम के लिए पास के कपिलतीर्थ क्षेत्र में विश्राम करने बैठ गया। उस समय कपिल तीर्थ की पुष्करिणी में एक सुन्दर नागकन्या स्नान कर रही थी। राजा सुधर्म इस सुन्दर नागकन्या को देखकर मोहित हो गया। उस कन्या की
इच्छा के अनुसार उसे गान्धर्व विधि से विवाह कर लिया। सुधर्म को नागकन्या में एक पुत्र पैदा हुआ। उसका नाम तोंडमान था। सुधर्म की अवसान दशा में अपने बड़े बेटे आकाशराजा को राजा बनाकर अपने राज्याधिकार को सौप दिया और छोटे बेटे तोंडमान को बडे बेटे के वश में देकर बल बसा। अकाशराजा अपनी पत्नी के साथ राज करने लगा। उसके पालन में देश सुभिक्ष था और प्रजा
सुखी थी। आकाशराजा की कीर्ति चारों ओर फैल गयी। उसे किसी बात की कमी न थी। लेकिन सन्तान न होने की एक ही चिन्ता उसे सताने लगी।
आकाशराजा पुत्र-कामेष्टि याग करना-
आकाश राजा संतान न हेने से पछता रहा था। एक दिन आकाशराजा अच्छे शुभ दिन देखकर अपने कुलगुरु शुक महामुनि को बुलवाया। राजा की खबर लेकर शुक महामुनि आकाशराजा के यहाँ आ पहुँचा। कुलगुरु शुक
महामुनि का आगमन देखकर आकाशराजा ने बडे आदर से उनका स्वागत किया । शुक महामुनि ने आकाश राजा को आशीर्वाद देते हुए पूछा– “हे राजा, मेरे आह्वान का कारण क्या है? मुझे किसलिए बुलवाया?” आकाशराजा
ने शुक मुनि को प्रणाम किया और अपने मन का विचार प्रकट किया और कहा “हे गुरुदेव, हमें संतान पाने के लिए कोई उपाय तो बताइए।” शुक महामुनि ने सोचकर कहा – “हे राजा, पूवकाल में राजा जनक ने पुत्र – कामेष्टियाग करके संतानपाया। तुम भी वही याग करो संतान पाओगे। भगवान तुम्हारा भला करेगा।
इस प्रकार कुलगुरु शुक महामुनि की सूचना के अनुसार आकाश राजा ने वेद ब्राह्मणों को बुलवाया और यज्ञ के समारोह में लग गया। यज्ञ के पहले यज्ञ स्थल को जोतने के लिए राजा स्वयं सुवर्ण हल लेकर जोतने लगा। हल चलते चलते आड लग कर रुक गया। राजा उस आडे लगे हुए जमीन को खोदकर देखा तो एक पेटी मिल गई। राजा उस पेटी को खोलकर देखा तो उसमें सहस्रदल पद्म के बीच में एक तेजोमय शिशु मिला। राजा खुश होकर शिशु को हाथ में लिया। अचानक उनको एक आकाशवाणी सुनाई पडी कि “हे राजा, तुम बडे भाग्यवान हो। तुम्हारे पूर्व-जन्म पुण्य के कारण यह पुत्री तुम्हारे वंश में पैदा हुई। इस पुत्रिका से तुम्हारे वंश की कीर्ति बढ जाएगी।” यों कहकर आकाशवाणि अदृश्य हो गई। आकाशराजा और उसकी धर्मपत्नी आकाशवाणी की बात सुनकर खुश हो गये। शिशु को गोद में लेकर यज्ञ की परिसमाप्ति की। वेद – ब्राह्मणों से आशीर्वाद पाकर शिशुको यज्ञ-शाला से राजमहल में ले गए।
आकाशराजा ने शुक महामुनि से विनंती की कि “हे गुरुदेव, यज्ञ काल में मिली हुई इस पुत्री को आप ही समुचित नाम बताइए। राजा की यह बात सुनकर शुक महामुनि ने कहा – “राजा, पद्मासन मे मिली हुई पुत्री को
“पद्मावती’ नाम ही अच्छा है। राज – दम्पतियों ने गुरुदेव की सूचना से बडे खुश हुए। शिशु को पद्मावती नाम रख कर उसको बडे लाड प्यार से पालने लगे। पद्मावती के मिलने के कुछ दिनों के बाद रानी धरणी देवी गर्भवती हुई
और शुभ घडी में एक पुत्र को जन्म दिया। उस को वसुदान नाम रखा। पद्मावती और वसुदान दोनों को बड़े प्यार से पालने लगे।
पद्मावती का पूर्व-जन्म वृत्तांत-
पूर्वकाल में पद्माक्ष नामक एक राजा था। उसको कोई संतान नहीं थी। इसलिए संतान प्राप्ति के लिए राजा वरलक्ष्मी व्रत करने लगा। कुछ दिनों के बाद वरलक्ष्मी के अनुग्रह से राजा को एक पुत्री पैदा हुई। राजा उस कन्या को मापलुंगी नाम देकर बडे प्यार से पालने लगा। मापलुंगी दन व दिन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह अभिवृद्ध होती गई। इसी तरह सोलह साल बीत गए।
मापलुंगी बचपन से ही श्रीहरि से प्यार करती थी। उसके मन में श्रीहरि बस गया था। श्रीहरि को ही अपना मन अर्पण करके और श्रीहरि से ही शादी करके का निश्चय किया। राजा ने मापलुंगी को सयानी देखकर उसे शादी
करने का निश्चय किया और स्वयंवर प्रकट किया। स्वंयवर के लिए देश देश के राजा आ पहुँचे। लंकाघोश रावण को भी यह विषय मालूम हुआ। मापलुंगी की
खूबसूरती के बारे में पहले ही सुन चुका था। इसलिए स्वयंवर के आह्वान के बिना ही स्वयंवर मण्डप में पहुँच गया। रावण को देखकर वहाँ के राजाकुमार डर के मारे भाग गए। स्वयंवर मण्डप पूरा भीभत्स होकर रणरंग बन गया। राजा पद्याक्ष ने रावण पर हमला किया। रावण ने अपने बाहुबल से गदायुद्ध किया और राजा पद्माक्ष को मार डाला। मापलुंगी के लिए रावण खोज रहा था। मापलुंगी स्वयंवर मण्डप से भागकर श्रीहरि की पूजा मन्दिर में गई। वहाँ श्रीहरि के ध्यान में बैठ गई। श्रीहरि की कृपा से मापलुंगी वहाँ से गायब हो गई। रावण निराश होकर वहाँ से चला गया।
मापलुंगी वहाँ से गायब होकर वन में वेद पठन करते हुए मुनियों के सामने प्रत्यक्ष हुई। मुनियों ने ज्ञानदृष्टि से पहचानकर वेद पठन करते हुए- समय पैदा हुई। इस कन्या को वेदवती कहकर नाम रख दिया। वेदवती मुनियों के आशीर्वाद पाकर तपस्या के लिए वहाँ से हिमगिरि पर्वत पत गई। वहीं तपस्या में बैठ गई।
कुछ दिनों के बाद रावण अपने विमान में बैठकर गगनविहार करते हुए फिर रहा था। हिमगिरि में तपस्या करती हुई वेदवती को पहचान लिया। रावण विमान से उतरकर तपस्या करती हुई वेदवती के पास आया। वेदवती आँख मूंदकर तपस्या में निमग्य थी। उसे रावण का वहाँ आना मालूम ही न हुआ। रावण ने वेदवती को देखकर कहा – “हे मापलुंगी, उस दिन राजमहल में गायब हो कर आज यहाँ तपस्विनी बनकर तपस्या कर रही हो। कही अब तुम कहाँ जाओंगी? देखता हूँ।
उस पक्षिवाहनवाला तुम को कैसे बचायेगा?” यों कहकर रावण अपने हाथ की उँगली को वेदवती की गाल में लगाया। वेदवती ने चकित होकर आँख खोल दी और सामने खडे हुए रावण को देखा। रावण ने वेदवती से कहा – “हे सुन्दरि, तुम इतना सुन्दर होकर तपस्या करने की आवश्यकता क्या है? तुम मुझ से शादी करो। मै तुम्हें लंका की रानी बानाऊँगा।” रावण की ये बातें सुनकर वेदवती क्रोधित हुई और कहा – “मूर्ख रावण, अनमनी कन्या के ऊपर अत्याचार कर रहे हो। यह लो मेरा शाप- ‘जिस कन्या के साथ तुम अत्याचार करोगे। वही कन्या तुम्हारा सर्वनाश करेगी। तुम्हारा नामो निशान मिटेगा’।” यों कहकर वेदवती अग्निदेव का ध्यान किया और अग्नि में प्रवेश कर शस्म हो गई।
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