।। पाठविधि* ।।
साधक स्नान करके पवित्र हो आसन-शुद्धिकी क्रिया सम्पन्न करके शुद्ध आसनपर बैठे; साथमें शुद्ध जल, पूजनसामग्री और श्रीदुर्गासप्तशतीकी पुस्तक रखे। पुस्तकको अपने सामने काष्ठ आदिके शुद्ध आसनपर विराजमान कर दे। ललाटमें अपनी रुचिके अनुसार भस्म, चन्दन अथवा रोरी लगा ले, शिखा बाँध ले; फिर पूर्वाभिमुख होकर तत्त्व-शुद्धिके लिये चार बार आचमन करे। उस समय अग्राङ्कित चार मन्त्रोंको क्रमशः पढ़े-
ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
तत्पश्चात् प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनोंको प्रणाम करे; फिर ‘पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ०’ इत्यादि मन्त्रसे कुशकी पवित्री धारण करके हाथमें लाल फूल, अक्षत और जल लेकर निम्नाङ्कितरूपसे संकल्प करे-
पहले तीन बार कहे- ॐ विष्णुः, विष्णुः, विष्णुः । तदनन्तर ‘ॐ नमः परमात्मने’ कहकर इस प्रकार बोले-श्रीपुराण पुरुषोत्तम श्रीविष्णुकी आज्ञासे आज प्रवर्त्तमान श्रीब्रह्माके द्वितीय परार्द्ध में श्रीश्वेतवाराह कल्पमें वैवस्वत मन्वन्तरके अट्ठाईसवें कलियुग के प्रथम चरणमें, जम्बूद्वीपके अन्तर्गत भारतवर्षके भरतखण्डमें, आर्यावर्तके अन्तर्गत ब्रह्मावर्तके पुण्यप्रद एक देशमें, वौद्धावतारमें….संवत्सर तथा…”अयन और महामाङ्गल्यप्रद मासोंमें उत्तम….. मासके…..”पक्षके दिनसे युक्त…… “तिथिमें तथा…..” नक्षत्रमें राशिमें स्थित सूर्यके और…”राशियोंमें स्थित चन्द्र, भौम, बुध,गुरु, शुक्र एवं शनिके रहनेपर शुभयोगमें, शुभकरणमें इस प्रकारके विशेष गुणोंसे विशिष्ट…. “शुभ पुण्य तिथिमें समस्त शास्त्रों, श्रुतियों, स्मृतियों एवं पुराणोंमें कहे गये फलकी प्राप्तिका अभिलाषी…….”गोत्रमें उत्पन्न …’शर्मा (वर्मा, गुप्त) मैं-पुत्र- स्त्रीबान्धवसहित मेरे श्रीनवदुर्गाके अनुग्रहसे ग्रहकृत, राजकृत सर्वविध पीडाओंके निवृत्तिपूर्वक नैरुज्य-दीर्घायु-पुष्टि-धन एवं धान्यकी समृद्धिके लिये श्रीनवदुर्गाके प्रसादसे समस्त आपत्तियोंकी निवृत्ति एवं समस्त अभीष्ट फलकी प्राप्ति तथा धर्म-अर्थ-काम- -मोक्ष-इन चतुर्विध पुरुषार्थों की सिद्धिद्वारा श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवताकी प्रीतिके लिये शापोद्धारपूर्वक कवच, अर्गला, कीलकका पाठ तथा वेदतन्त्र, उक्त रात्रिसूक्तपाठ, देव्यथर्वशीर्षपाठ और न्यासविधिसहित नवार्णजप तथा सप्तशती-न्यास-ध्यानसहित चरित्रसम्बन्धी विनियोग एवं न्यास और ध्यानपूर्वक मार्कण्डेयजी बोले-‘सावर्णि नामक मनु होंगे, यहाँतक दुर्गासप्तशतीका पाठ, इसके बाद न्यासविधिके साथ नवार्णजप, वेद-तन्त्रोक्त देवीसूक्तका पाठ, रहस्यत्रयका पाठ, शापोद्धार आदि करूँगा (करूँगी)।
इस प्रकार प्रतिज्ञा (संकल्प) करके देवीका ध्यान करते हुए पञ्चोपचारकी विधिसे पुस्तककी पूजा करे, योनिमुद्राका प्रदर्शन करके भगवतीको प्रणाम करे, फिर मूल नवार्णमन्त्रसे पीठ आदिमें आधारशक्तिकी स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तकको विराजमान करे।
इसके बाद शापोद्धार* करना चाहिये। इसके अनेक प्रकार हैं। ‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’- इस मन्त्रका आदि और अन्तमें सात बार जप करे। यह शापोद्धार मन्त्र कहलाता है। इसके अनन्तर उत्कीलन मन्त्रका जप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्तमें इक्कीस-इक्कीस बार होता है। यह मन्त्र इस प्रकार है- ‘ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।’ इसके जपके पश्चात् आदि और अन्तमें सात-सात बार मृतसंजीवनी विद्याका जप करना चाहिये, जो इस प्रकार है- ‘ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।’ मारीचकल्पके अनुसार सप्तशती-
शापविमोचनका मन्त्र यह है- ‘ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।’ इस मन्त्रका आरम्भमें ही एक सौ आठ बार जप करना चाहिये, पाठके अन्तमें नहीं। अथवा रुद्रयामल महातन्त्रके अन्तर्गत दुर्गाकल्पमें कहे हुए चण्डिका-शाप-विमोचन मन्त्रोंका आरम्भमें ही पाठ करना चाहिये। वे मन्त्र इस प्रकार हैं-
‘ॐ’ इस श्रीचण्डिकाके ब्रह्मा, वसिष्ठ, विश्वामित्र-सम्बन्धी शाप-विमोचन मन्त्रके वसिष्ठ तथा नारद संवादात्मक सामवेदके अधिपति ब्रह्मा ऋषि हैं, सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता हैं। दुर्गाके तीनों चरित्र बीज हैं ‘ही’ शक्ति है, त्रिगुणात्मकस्वरूपिणी चण्डिकाकी शापविमुक्तिमें अपने किये हुए संकल्पित कार्यकी सिद्धिके लिये जपमें इसका विनियोग किया जाता है।
ॐ (ह्रीं) री रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठ- विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥१॥ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥२॥ ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठ- विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥३॥ ॐ हूं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥४॥ ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्र- शापाद् विमुक्ता भव॥५॥ ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥६॥ ॐ तूं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठ- विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥७॥ ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥८॥ ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥९॥ ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥१०॥ ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥११॥ ॐ अं
श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद्
विमुक्ता भव ॥१२॥ ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥१३ ॥ ॐ मां
मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्र-
शापाद् विमुक्ता भव॥१४॥ ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं
सर्वैश्वर्यकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥१५॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठ-
विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥१६॥ ॐ क्रीं काल्यै कालि
ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद्
विमुक्ता भव॥१७॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महाकालीमहालक्ष्मी-
महासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः॥१८॥
हे परमेश्वर! इस प्रकार इन महामन्त्रोंको पढ़कर चण्डीके पाठको रात-दिन संशयरहित होकर करना चाहिये॥१९॥
जो इस मन्त्रको न जान करके-इन मन्त्रोंका पाठ न करके चण्डीका पाठ करता है, वह अपनी भी हानि करता है और दाता-पाठ करवानेवालेकी भी हानि करता है। इसमें कोई सन्देह नहीं ॥२०॥
इस प्रकार शापोद्धार करनेके अनन्तर अन्तर्मातृका-बहिर्मातृका आदि न्यास करे, फिर श्रीदेवीका ध्यान करके रहस्यमें बताये अनुसार नौ कोष्ठोंवाले यन्त्रमें महालक्ष्मी आदिका पूजन करे, इसके बाद छः अङ्गोंसहित दुर्गासप्तशतीका पाठ आरम्भ किया जाता है।
कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य-ये ही सप्तशतीके छः अङ्ग माने गये हैं। इनके क्रममें भी मतभेद है। चिदम्बरसंहितामें पहले अर्गला फिर कीलक तथा अन्तमें कवच पढ़नेका विधान है। किंतु योगरत्नावलीमें पाठका क्रम इससे भिन्न है। उसमें कवचको बीज, अर्गलाको शक्ति तथा कीलकको कीलक संज्ञा दी गयी है।
जिस प्रकार सब मन्त्रोंमें पहले बीजका, फिर शक्तिका तथा अन्तमें कीलकका उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवचरूप बीजका, फिर अर्गलारूपा शक्तिका तथा अन्तमें कीलकरूप कीलकका क्रमश: पाठ होना चाहिये। यहाँ इसी क्रमका अनुसरण किया गया है।