Diwali Katha –
भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। दीपावली कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। दीपावली को हम दीपावली, दिवाली या दीवाली के नाम से जानते हैं। दीपावली भारत के सबसे बड़े और सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। दीपावली दीपों का त्योहार है। आध्यात्मिक रूप से यह ‘अन्धकार पर प्रकाश की विजय’ को दर्शाता है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं।
असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।
आइए जानते हैं दीपावली की पौराणिक कथा – Diwali Katha
प्रदोष काल में मां लक्ष्मी की पूजा करें।
दीपावली के दिन प्रदोष काल में मां लक्ष्मी और भगवान गणेश की पूजा की जाती है। दीपावली के दिन धन की देवी मां लक्ष्मी धरती पर विचरण के लिए आती हैं। ऐसी मान्यता है इस दौरान उनकी जो सच्चे मन से अराधना करता है, उन पर अपनी कृपा बरसाती हैं।
दिवाली के दिन कई लोग मां लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए व्रत भी रखते हैं और शाम को विधि-विधान से पूजन के बाद व्रत खोलते हैं। मां लक्ष्मी धन की अधिष्ठात्री देवी हैं। ब्रह्मांड की समस्त ऐश्वर्यता उनसे ही उदित हुई है। संसार की सारी शुभता का मूल मां लक्ष्मी ही हैं। स्वर्ग को श्री प्रदान करने वाली अमंगल को मंगल में परिवर्तित करने वाली निर्धन को धन से परिपूर्ण करने वाली ऐसी अद्भुत शक्ति सम्पन्न माँ स्वयं कब और कैसे प्रकट हुईं। आईए जानते हैं, Diwali Katha
ऋषि दुर्वासा इंद्र की कथा
इस कथा के अनुसार एक बार ऋषि दुर्वासा ने देवराज इंद्र को मोतियों का एक दिव्य हार भेंट किया। इंद्र ने वह हार अपने गज ऐरावत के सिर पर सजा दिया। थोड़ी देर बाद वह हार भूमि पर गिर पड़ा और ऐरावत ने उसे पैरों तले रौंद दिया। ऋषि दुर्वासा का क्रोध ब्रह्मांड में ख्यात है। अपने क्रोधी स्वभाव के अनुरूप दुर्वासा जी ने इंद्र को श्राप दिया कि इसी पल से देवता शक्तिहीन और स्वर्ग श्रीहीन हो जाएगा।
यह बात असुरों को पता चली तो दैत्यों ने स्वर्गलोक पर चढ़ाई कर दी। महर्षि के श्राप ने देवताओं को इतना निर्बल कर दिया कि वे हर युद्ध में दानवों से हारते गए और अपनी रक्षा के लिए छिपते फिरे। देवताओं की यह दुर्दशा देखकर।
भगवान विष्णु ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने का सुझाव दिया। उन्होंने असुरों को अमृत का लालच दिया और समुद्र मंथन में देवताओं का सहयोगी बनने के लिए तैयार कर लिया। इस समुद्र मंथन के द्वारा लगभग 18 दिव्य शक्तियां प्रकट हुईं।
इनमें से ही एक थीं माँ लक्ष्मी। माँ लक्ष्मी के प्रकट होने से पूर्व ही सम्पूर्ण लोक स्वर्ण ज्योति से आलोकित हो गया। इसके बाद खिले हुए लाल कमल पर स्थापित स्वर्ण प्रतिमा के रूप में लक्ष्मी देवी प्रकट हुईं।
उन्होंने लाल वस्त्र धारण किए हुए थे और उनका पूरा शरीर स्वर्णाभूषणों से लदा हुआ था। उनके हाथ में स्वर्ण कलश थे, जिनसे स्वर्ण की वर्षा हो रही थी। ऐसी अद्भुत रूपमयी देवी को देखते ही दानवों और देवों में युद्ध छिड़ गया। दोनों ही पक्ष देवी को हस्तगत करना चाहते थे। इस युद्ध का कोई परिणाम न निकलते देख देवताओं के गुरु बृहस्पति और दानवों के गुरु शुक्राचार्य ने देवी से ही अपना वर चुनने का निवेदन किया।
देवी लक्ष्मी ने श्री विष्णु को वरमाला पहनाकर स्वयम्वर पूर्ण किया। इस तरह ब्रह्मांड को धन, वैभव, शक्ति, सौंदर्य और सौभाग्य की अधिष्ठात्री देवी प्राप्त हुईं। और तभी से भारतवर्ष में दीपावली को हम माता लक्ष्मी के जन्म उत्सव के रूप में मनाते हैं
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