तदनन्तर सप्तशतीके विनियोग, न्यास और ध्यान करने चाहिये। न्यासकी प्रणाली पूर्ववत् है-
विनियोग इस प्रकार है- प्रथम-मध्यम और उत्तर चरित्रोंके क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र ऋषि हैं, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी और महासरस्वती देवता हैं, गायत्री-उष्णिक् और अनुष्टुप् छन्द हैं, नन्दा-शाकम्भरी तथा भीमा शक्ति हैं। रक्तदन्तिका-दुर्गा तथा भ्रामरी बीज हैं, अग्नि-वायु और सूर्य तत्त्व हैं, ऋक्-यजुः और सामवेद ध्यान हैं, सकल कामनाओंकी सिद्धिके हेतु श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी तथा महासरस्वती देवताकी प्रीतिके लिये प्रथम-मध्यम-उत्तर चरित्रके जपमें इनका विनियोग किया जाता है।
तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शङ्ख और धनुष धारण करनेवाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ-ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं। (इतना कहकर दोनों हाथोंकी तर्जनी अंगुलियोंसे दोनों अंगूठोंका स्पर्श)।
देवि! आप शूलसे हमारी रक्षा करें। अम्बिके! आप खड्गसे भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टाकी ध्वनि और धनुषकी टंकारसे भी हमलोगोंकी रक्षा करें। (दोनों हाथोंके अंगूठोंसे दोनों तर्जनी अंगुलियोंका स्पर्श करे।) चण्डिके! पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशामें आप हमारी रक्षा करें तथा ईश्वरि! अपने त्रिशूलको घुमाकर आप उत्तर दिशामें भी हमारी रक्षा करें। (अँगूठोंसे मध्यमा अँगुलियोंका स्पर्श करे।) तीनों लोकोंमें आपके जो परम सुन्दर रूप एवं अत्यन्त भयङ्कर रूप विचरते रहते हैं, उनके द्वारा भी आप हमारी तथा इस भूलोककी रक्षा करें। (अनामिका अँगुलियोंका स्पर्श करे।) अम्बिके! आपके कर-पल्लवोंमें शोभा पानेवाले खड्ग, शूल और गदा आदि जो- जो अस्त्र हों, उन सबके द्वारा आप सब ओरसे हमलोगोंकी रक्षा करें। (कनिष्ठिका अँगुलियोंका स्पर्श करे।)
सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकारकी शक्तियोंसे सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयोंसे हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है। (हथेलियों और उनके पृष्ठ-भागोंका स्पर्श करे।)
तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा-(दाहिने हाथकी पाँचों अँगुलियोंसे हृदयका स्पर्श करे)।
देवि! आप शूलसे हमारी रक्षा करें-(इतना कहकर सिरका स्पर्श करे)।
चण्डिके ! पूर्व, पश्चिम-(इतना कहकर शिखाका स्पर्श करे।)
आपके जो परम सुन्दर रूप-(दाहिने हाथकी अँगुलियोंसे बायें कंधेका और बायें हाथकी अँगुलियोंसे दाहिने कंधेका साथ ही स्पर्श करे)।
खड्ग, शूल और गदा-(कहकर दाहिने हाथकी अँगुलियोंके अग्रभागसे दोनों नेत्रों और ललाटके मध्यभागका स्पर्श करे)।
सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी-(कहकर दाहिने हाथको सिरके ऊपरसे बायीं ओरसे पीछेकी ओर ले जाकर दाहिने ओरसे आगेकी ओर ले आये और तर्जनी तथा मध्यमा अँगुलियोंसे बायें हाथकी हथेलीपर ताली बजाये)।
ध्यान
मैं तीन नेत्रोंवाली दुर्गादेवीका ध्यान करता हूँ, उनके श्रीअङ्गोंकी प्रभा बिजलीके समान है। वे सिंहके कंधेपर बैठी हुई भयंकर प्रतीत होती हैं। हाथोंमें तलवार और ढाल लिये अनेक कन्याएँ उनकी सेवामें खड़ी हैं। वे अपने हाथोंमें चक्र, गदा, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, पाश और तर्जनी मुद्रा धारण किये हुए हैं। उनका स्वरूप अग्निमय है तथा वे माथेपर चन्द्रमाका मुकुट धारण करती हैं।
इसके बाद प्रथम चरित्रका विनियोग और ध्यान करके ‘मार्कण्डेयजी बोले’ से सप्तशतीका पाठ आरम्भ करे। प्रत्येक चरित्रका विनियोग तथा प्रत्येक अध्यायके आरम्भमें ध्यान भी दे दिया गया है। पाठ प्रेमपूर्वक भगवतीका ध्यान करते हुए करे। मीठा उत्तम स्वर, अक्षरोंका स्पष्ट उच्चारण, पदोंका विभाग, स्वर, धीरे-धीरे बोलना-ये सब पाठकोंके गुण हैं। जो पाठ करते समय रागपूर्वक गाता, उच्चारणमें जल्दबाजी करता, सिर हिलाता, अपने हाथसे लिखी हुई पुस्तकपर पाठ करता और अधूरा ही पाठ करता है, वह पाठ करनेवालोंमें अधम माना गया है। जबतक अध्यायकी पूर्ति न हो, तबतक बीचमें पाठ बंद न करे। यदि प्रमादवश अध्यायके बीचमें पाठका विराम हो जाय तो पुनः प्रति बार पूरे अध्यायका पाठ करे। अज्ञानवश पुस्तक हाथमें लेकर पाठ करनेका फल आधा ही होता है। स्तोत्रका पाठ मानसिक नहीं, वाचिक होना चाहिये। वाणीसे उसका स्पष्ट उच्चारण ही उत्तम माना गया है। बहुत जोर-जोरसे बोलना तथा पाठमें उतावली करना वर्जित है। यन्तपूर्वक शुद्ध एवं स्थिर चित्तसे पाठ करना चाहिये। अपने हाथसे लिखे हुए अथवा ब्राह्मणेतर पुरुषके लिखे हुए स्तोत्रका पाठ न करे। अध्याय समाप्त होनेपर ‘इति’ ‘वध’ ‘अध्याय’ तथा ‘समाप्त’ शब्दका उच्चारण नहीं करना चाहिये।