Ramayan / मनुष्यों का परम श्रेय किसमे है।
Ramayan Chaupai / रामचरितमानस
रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड के चौथे दोहे के 7 वें श्लोक में अत्रिमुनि ने भगवान श्री राम जी की स्तुति करते हुए कहा कि –
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥
सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥4॥
भावार्थ – श्री रामजी परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य ‘नेति-नेति’ कहकर निरूपण करते हैं॥4॥
जिनका मन संसार में आसक्त है उनके लिए तो धन पुत्र की प्राप्ति ही परम श्रेय है, लेकिन परमात्व तत्व को जानने वालों के लिए, आत्मा और परमात्मा को जान लेना है परम श्रेय है।
श्रेय तो अनेक प्रकार के हैं ,लेकिन वास्तविक श्रेय किसमे है चिंतन करते हैं।
यदि धन को श्रेय माना जाय तो भोग के लिए व्यय क्यों करते हैं?
यदि पुत्र को श्रेय मान लिया जाए तो उसका श्रेय उसका पुत्र हुआ, और वह स्वयं अपने पिता का श्रेय हुआ,
अर्थात हर कारण का कार्य श्रेय हुआ अतः यह भी नहीं है।
यदि राज्य को श्रेय कहें तो वह भी आने जाने वाला होने से वह भी नहीं है।
नाशवान वस्तु से सम्पन्न होने वाला कर्म का फल नासवान ही होगा, अतः कुश, समिधा,घृत इन नाशवान वस्तुओं से सम्पन्न होने वाला कर्म फल नाशवान ही होगा।
यदि निष्काम भाव से किया जाय तब वह साधन मात्र हुआ।
आत्मा और परमात्मा के ज्ञान को यदि श्रेय कहें तो इनको भिन्न मानने से मेल कैसा?
एक ही वायु बांसुरी के छिद्र के कारण स्वरुप से भेद भासता है, वास्तविक में है एक,उसी तरह एक परमात्मा ही अलग-अलग योनियों में अलग-अलग जान पड़ते हैं।
एक ही वायु सबमें प्रवेश कर प्रकाशित कर रही है वैसे ही एक ही परमात्मा आत्म रुप से सबमें स्थित है।
यही परम श्रेय है, परमार्थ है।
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