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तिरुपति बालाजी मंदिर का संपूर्ण इतिहास
भृगू महर्षि, ब्रह्मदेव की परीक्षा
सत्यलोक में ब्रह्मदेव अपनी पत्नी सरस्वती के साथ स्वर्णसिंहासन पर विराजमान थे। सिंहासन की एक तरफ ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि आदि महामुनि बैठे हुए थे। दूसरी तरफ यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, किंपुरुष आदि देवता बैठे हुए थे। ब्रह्मदेव उस सभा में देव-धर्मों का उपदेश दे रहे थे। पूरी सभा में सब लोग ध्यान से सुन रहे थे। उस समय भृगु महर्षि सभा में प्रविष्ट हुआ और चारों ओर देखकर निर्लक्ष्य भाव और घमण्ड से साथ ही मर्यादा की परवाह न कर ब्रह्मदेव की आज्ञा भी न पाकर सभा में एक उच्च आसन पर बैठ गए। भृगु के आने से पहले सब को संतोष हुआ। पर भृगु के इस अपमान को देख कर सब लोग उत्तेजित हुए। इस अनुचित व्यवहार को देखकर ब्रह्मदेव भृगु पर क्रोधित हुए और कठोर स्वर से कहा – अरे भृगु तुम ब्रह्मवंश में उत्पन्न होकर भी सभा मर्यादा को नहीं जानते। सभा के अधिपति मुझ से भी पूछ-ताछ नहीं की। प्रणाम तक न करके सीधा बैठ गये। तुम्हारा इतना घमण्ड, इतनी हिम्मत, तुम इस सभा में बैठें हुए महार्षयों से बड़े हो, अत्रि महामुनि से बडे हो, देवेंद्र को श्राप देने वाले गौतम महामुनी से भी अधिक हो, मैं ने कभी न समझा कि तुम इतने मूर्ख हो। यह कहकर ब्रह्मदेव ने भृगु को डौटा। ब्रह्मदेव के इनअपमान के वचन सुनकर भृगु सोचने लगे । ब्रह्मदेव में सत्वगुण नहीं है। वह राजा की तरह रजोगुण में कह रहे हैं। ये तो यज्ञफल के लिए नालायक है। यह सोच कर अचानक आसन से उठ गए और क्रोधित स्वर में कहा – हे ब्रह्मदेव, तुम ने मेरे आने, का कारण न समझकर मुझे अपमानित किया। तुम जैसे अयोग्य को मेरा शाप यही है, भूलोक में तुम्हारे लिए मंदिर नहीं बनाया तुम्हारी पूजा वहाँ नहीं होगी। इस प्रकाश शाप देकर भृगु वहाँ से कैलास की ओर रवाना हुआ।
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